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ग़ज़ल
हम-नफ़स-ओ-हबीब-ए-ख़ास बनते हैं ग़ैर किस तरह
बोली ये सर्द-मेहरी-ए-उम्र-ए-गुरेज़-पा कि यूँ
एस ए मेहदी
ग़ज़ल
कोई बादा-कश जिसे मय-कशी का तरीक़-ए-ख़ास न आ सका
ग़म-ए-ज़िंदगी की कशा-कशों से कभी नजात न पा सका
नरेश एम. ए
नज़्म
अजब है खेल कैरम का
लो उस की शर्त भी सुन लो कि
कनीज़-ए-ख़ास को ले कर ही रानी आप की होगी
इब्न-ए-मुफ़्ती
ग़ज़ल
सुर्ख़ी के सबब ख़ूब खिला है गुल-ए-लाला
आरिज़ में लबों में कफ़-ए-दस्त ओ कफ़-ए-पा में