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उद्धरण
मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी
ग़ज़ल
देख ऐ बुत-ए-कम-गो तिरी सोहबत के असर से
मेरी भी ये ख़सलत है कि मैं कुछ नहीं कहता
मुंशी खैराती लाल शगुफ़्ता
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नज़्म
क्या कहिए
क्यूँ हो न जुनूँ कम-गो जब होता है ये ज़ीरक
दोहराती हुई बातें महरूम से नहीं कहता
मीम हसन लतीफ़ी
ग़ज़ल
कम-गो हैं और अपनी आदत अपनी फ़िक्र पे भारी है
वर्ना जब भी बात करेंगे धाक हमारी बैठेगी