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ग़ज़ल
तुझ पे मैं खोलूँगी इक दिन सभी औराक़-ए-जमाल
तू अभी हुस्न के अबवाब से कम वाक़िफ़ है
नादिया अंबर लोधी
नज़्म
मिसरे
एक सुकूँ का पल मिलते ही सोच की हंडिया खोलूँगी और इक इक कर के
धीमी आँच पे सारे मिसरे सेंकुंगी
शुमाइला बहज़ाद
नज़्म
सर-ए-मिज़्गाँ
आँख खोलूंगी तो ये बोझ गिरेगा ऐसे
आँख का गुम्बद-ए-सीमाब पिघल जाएगा
अम्बरीन सलाहुद्दीन
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ग़ज़ल
आज़ादी का दरवाज़ा भी ख़ुद ही खोलेंगी ज़ंजीरें
टुकड़े टुकड़े हो जाएँगी जब हद से बढ़ेंगी ज़ंजीरें
हफ़ीज़ मेरठी
नज़्म
मुफ़्लिसी
फिर दिल में सोचती है कि क्या ख़ाक खाऊँगी
आख़िर चबीना उस का भुनाती है मुफ़्लिसी
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
जवाब इस का सही देगा कोई तो इस को खोलूँगा
बना कर एक गठरी मैं ने रखी है सवालों की