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नज़्म
इल्तिजा
दौलत के फ़रेबी बंदों का ये किब्र और नख़वत मिट जाए
बर्बाद वतन के महलों से ग़ैरों की हुकूमत मिट जाए
आमिर उस्मानी
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ग़ज़ल
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
जिस क़दर झुक झुक के मिलते हैं बुज़ुर्ग ओ ख़ुर्द से
किब्र ओ नाज़ उतना ही अपने में सिवा पाते हैं हम
अल्ताफ़ हुसैन हाली
ग़ज़ल
किया नमरूद ने गो किब्र से दावा ख़ुदाई का
कहीं उस का ये दा'वा पेश जा सकता है क्या क़ुदरत
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
मज़दूर
ज़िंदगी को नागवार इक सानेहा जाने हुए
बज़्म-ए-किबर-ओ-नाज़ में फ़र्ज़ अपना पहचाने हुए
सीमाब अकबराबादी
ग़ज़ल
वही किब्र है मिरी ख़ाक में वही जहल है मिरी ज़ात में
जो शरार है वो बुझा नहीं जो चराग़ है वो जला नहीं