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नज़्म
नज़्र-ए-ख़ालिदा
ख़ार-ज़ार-ए-ग़म को पैरों से कुचलना है हमें
जादा-ए-मंज़िल में गिरना है सँभलना है हमें
असरार-उल-हक़ मजाज़
ग़ज़ल
ऐ मिरी मसरूफ़ियत मुझ को ज़रूरत है तिरी
इक पुराने ग़म का सर फिर से कुचलना है मुझे
स्वप्निल तिवारी
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ग़ज़ल
हसन कमाल
ग़ज़ल
यूँ तो हर सम्त कई लोग थे ख़ुशबू के सफ़ीर
कुछ सियह नाग थे क़दमों से कुचलना ही पड़ा