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नज़्म
रवाँ हूँ मैं
सफ़ेद-मू सिर पे कुहल-उम्री की बर्फ़ रक्खे
कि आज मैं अपने अहद का और शहर का वो ज़मीर भी हूँ
इक़बाल कौसर
ग़ज़ल
इस हुस्न-परस्ती का यही हश्र है होना
कुल उम्र मिरी इश्क़ में बर्बाद रहेगी