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नज़्म
मुहासरा
तमाम सूफ़ी ओ सालिक सभी शुयूख़ ओ इमाम
उमीद-ए-लुत्फ़ पे ऐवान-ए-कज-कुलाह में हैं
अहमद फ़राज़
नज़्म
ख़िज़्र-ए-राह
ख़िश्त-ए-बुनियाद-ए-कलीसा बन गई ख़ाक-ए-हिजाज़
हो गई रुस्वा ज़माने में कुलाह-ए-लाला-रंग
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
मुफ़्लिसी
टोपी पुरानी दो तो वो जाने कुलाह-ए-जिस्म
क्यूँकर न जी को उस चमन-ए-हुस्न के हो ग़म
नज़ीर अकबराबादी
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ग़ज़ल
सर-ए-खुसरव से नाज़-ए-कज-कुलाही छिन भी जाता है
कुलाह-ए-ख़ुसरवी से बू-ए-सुल्तानी नहीं जाती
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
किसान
जिस के माथे के पसीने से पए-इज़्ज़-ओ-वक़ार
करती है दरयूज़ा-ए-ताबिश कुलाह-ए-ताजदार
जोश मलीहाबादी
नज़्म
हिमाला
बर्फ़ ने बाँधी है दस्तार-ए-फ़ज़ीलत तेरे सर
ख़ंदा-ज़न है जो कुलाह-ए-मेहर-ए-आलम-ताब पर
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
अगस्त-1952
हाँ कज करो कुलाह कि सब कुछ लुटा के हम
अब बे-नियाज़-ए-गर्दिश-ए-दौराँ हुए तो हैं