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ग़ज़ल
पड़ा रहता हूँ कुंज-ए-आफ़ियत में सर छुपा कर
गुज़र जाता है यूँ ही सब्त और आदीना मेरा
ग़ुलाम हुसैन साजिद
ग़ज़ल
वो होवे और मैं हूँ और इक कुंज-ए-आफ़ियत
इस से ज़ियादा चाहिए फिर और क्या मुझे
शेर मोहम्मद ख़ाँ ईमान
ग़ज़ल
उन से बहार ओ बाग़ की बातें कर के जी को दुखाना क्या
जिन को एक ज़माना गुज़रा कुंज-ए-क़फ़स में राम हुए
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
मुद्दतों के बाद फिर कुंज-ए-हिरा रौशन हुआ
किस के लब पर देखना हर्फ़-ए-दुआ रौशन हुआ