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नज़्म
आधी रात
लबों पे सो गई कलियों की मुस्कुराहट भी
ज़रा भी सुम्बुल-ए-तुर्की लटें नहीं हिलतीं
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
कश्मीर सी जागह में ना-शुक्र न रह ज़ाहिद
जन्नत में तू ऐ गीदी मारे है ये क्यूँ लातें
मोहम्मद रफ़ी सौदा
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नज़्म
चेहरा तेरा
आरज़ू पर ये अरक़ लगता है शबनम की तरह
और सनी इस में लटें लगती है रेशम की तरह
जय राज सिंह झाला
नज़्म
एक शाम
थकी धूप ने आ के लहरों की फैली हुई नंगी बाँहों पे अपनी लटें खोल दी हैं
ये जू-ए-रवाँ है
मजीद अमजद
नज़्म
क्या वहीं मिलोगे तुम
कुछ दिनों से मैं जब भी
आईने में अपनी हल्की सफ़ेद लटें देखती हूँ