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ग़ज़ल
हो ये लब्बैक-ए-हरम या ये अज़ान-ए-मस्जिद
मय-कशो क़ुलक़ुल-ए-मीना की सदा याद रहे
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
आह वो दिल जिस को लब्बैक-ए-हरम से आर था
इश्क़ में इक बुत के नाक़ूस-ए-बरहमन हो गया
करामत अली शहीदी
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ग़ज़ल
ये और बात कि अनजाने लग़्ज़िशें हो जाएँ
मगर शुऊ'र-ए-हराम-ओ-हलाल रखते हैं
शान-ए-हैदर बेबाक अमरोहवी
नज़्म
व-यबक़ा-वज्ह-ओ-रब्बिक (हम देखेंगे)
हम अहल-ए-सफ़ा मरदूद-ए-हरम
मसनद पे बिठाए जाएँगे
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
लौह-ओ-क़लम
मय-ख़ाना सलामत है तो हम सुर्ख़ी-ए-मय से
तज़ईन-ए-दर-ओ-बाम-ए-हरम करते रहेंगे