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ग़ज़ल
मुबारक सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
मैं तर्क-ए-रह-ओ-रस्म-ए-जुनूँ कर ही चुका था
क्यूँ आ गई ऐसे में तिरी लग़्ज़िश-ए-पा याद
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
अगर काबे का रुख़ भी जानिब-ए-मय-ख़ाना हो जाए
तो फिर सज्दा मिरी हर लग़्ज़िश-ए-मस्ताना हो जाए
बेदम शाह वारसी
नज़्म
एक रह-गुज़र पर
अदा-ए-लग़्ज़िश-ए-पा पर क़यामतें क़ुर्बां
बयाज़-रुख़ पे सहर की सबाहतें क़ुर्बां
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
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नज़्म
गुफ़्तुगू (हिन्द पाक दोस्ती के नाम)
सुब्ह तक ढल के कोई हर्फ़-ए-वफ़ा आएगा
इश्क़ आएगा ब-सद लग़्ज़िश-ए-पा आएगा
अली सरदार जाफ़री
ग़ज़ल
लग़्ज़िश-ए-मस्ताना ओ जोश-ए-तमाशा है 'असद'
आतिश-ए-मय से बहार-ए-गरमी-ए-बाज़ार-ए-दोस्त
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
बड़ा एहसाँ है मेरे सर पे उस की लग़्ज़िश-ए-पा का
कि इस ने बे-तहाशा हाथ मेरे दोश पर रक्खा
अमीर मीनाई
शेर
मैं आख़िर आदमी हूँ कोई लग़्ज़िश हो ही जाती है
मगर इक वस्फ़ है मुझ में दिल-आज़ारी नहीं करता
आसी करनाली
ग़ज़ल
हम भी क्यूँ दहर की रफ़्तार से होते पामाल
हम भी हर लग़्ज़िश-ए-मस्ती को सराहे जाते
शानुल हक़ हक़्क़ी
नज़्म
जौन-एलिया से आख़री मुलाक़ात
ये एक लग़्ज़िश है जिस के दम से हयात-ए-नौ का भरम खुला है
तारिक़ क़मर
ग़ज़ल
हमारी लग़्ज़िश-ए-पा का ख़याल क्यूँ है तुम्हें
तुम अपनी चाल सँभालो तुम्हें किसी से क्या