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ग़ज़ल
लज़्ज़त-ए-दर्द-ए-अलम ही से सुकूँ आ जाए है
दिल मिरा उन की नवाज़िश से तो घबरा जाए है
सय्यद जहीरुद्दीन ज़हीर
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नज़्म
उर्दू
ये मुमकिन है कि क़ौमों को मिटा दे गर्दिश-ए-आलम
मगर कोई मिटा सकता नहीं उर्दू की अज़्मत को
अलम मुज़फ़्फ़र नगरी
ग़ज़ल
'अलम’ रब्त-ए-दिल-ओ-पैकाँ अब इस आलम को पहुँचा है
कि हम पैकाँ को दिल दिल को कभी पैकाँ समझते हैं