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ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
अहल-ए-ख़िरद तादीब की ख़ातिर पाथर ले ले आ पहुँचे
जब कभी हम ने शहर-ए-ग़ज़ल में दिल की बात बयाँ की है
इब्न-ए-इंशा
शेर
बे तेरे क्या वहशत हम को तुझ बिन कैसा सब्र ओ सुकूँ
तू ही अपना शहर है जानी तू ही अपना सहरा है