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ग़ज़ल
ऐब ऐ 'रौशन' समझते हैं हुनर कोई हुनर
ना-मुवाफ़िक़ है ज़माना अब कमाल अच्छा नहीं
इनायतुल्लाह रौशन बदायूनी
ग़ज़ल
रौशन है जहाँ नूर से उस पर्दा-नशीं के
ख़ुर्शीद में ज़र्रा रुख़-ए-रौशन की ज़िया है
इनायतुल्लाह रौशन बदायूनी
ग़ज़ल
तारों की तरह रौशन ही रहे वो सब्ज़ा-ओ-गुल के दामन पर
जो क़तरा-ए-शबनम सूरज की किरनों से बग़ावत कर बैठे
रौशन बनारसी
ग़ज़ल
मुफ़ीद-ए-आम सुख़न हो ये शर्त है 'रौशन'
कि इस की क़द्र ख़ुद अहल-ए-कलाम करते हैं
इनायतुल्लाह रौशन बदायूनी
ग़ज़ल
रवाना क़ाफ़िले वाले तो हो चुके 'रौशन'
हम इंतिज़ार में लैल-ओ-नहार बैठे हैं
इनायतुल्लाह रौशन बदायूनी
ग़ज़ल
फ़ुर्क़त-ए-तालिब-ओ-मतलूब ग़ज़ब है 'रौशन'
जान को जिस्म से रुक रुक के निकलते देखा