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नज़्म
जाने क्यूँ ऐसा हूँ मैं
सामने मेरी मदह-सराई पीछे गाली देता है
हमदर्दी है कोई दिखाता कोई साज़िश करता है
अबु बक्र अब्बाद
ग़ज़ल
गुस्ताख़ तिरी मदह-सराई में है 'वहशत'
क्यूँकर न हो तेरे ही तो कूचे का गदा है
वहशत रज़ा अली कलकत्वी
समस्त
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ग़ज़ल
ज़ख़्म-ख़ुर्दा ग़म-ए-दौराँ से हैं जज़्बात-ए-लतीफ़
हुस्न और इश्क़ की क्या मदह-सराई लिखिए
सय्यदा फ़रहत
ग़ज़ल
हम भी मदह-सराई करते हम भी क़सीदा-गो होते
शुक्र है ख़्वाहिश-ए-जाह में हाइल शाइ'र का पिंदार हुआ