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ग़ज़ल
मिस्ल-ए-मह-ए-दो-हफ़्ता वही सरफ़राज़ था
जिस की जबीन-ए-शौक़ पे दाग़-ए-नियाज़ था
जगत मोहन लाल रवाँ
ग़ज़ल
गर ख़ुदा देवे क़नाअत माह-ए-दो-हफ़्ता की तरह
दौड़े सारी को कभी आधी न इंसाँ छोड़ कर
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
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ग़ज़ल
कहीं माह-ए-दो-हफ़्ता की नज़र मुझ को न लग जाए
न आया बाम पर इस ख़ौफ़ से वो माह-रू बरसों