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ग़ज़ल
रुख़ का जल्वा पिन्हाँ रक्खा पैदा कर के मख़्लूक़ात
हुस्न-ए-ज़ाहिर सब ने देखा किस ने देखा हुस्न-ए-ज़ात
नज़र लखनवी
नज़्म
शिकवा
तोड़े मख़्लूक़ ख़ुदावंदों के पैकर किस ने
काट कर रख दिए कुफ़्फ़ार के लश्कर किस ने
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
फ़रमान-ए-ख़ुदा
क्यूँ ख़ालिक़ ओ मख़्लूक़ में हाइल रहें पर्दे
पीरान-ए-कलीसा को कलीसा से उठा दो
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
दोस्ती का हाथ
हमारे शहरों की मजबूर ओ बे-नवा मख़्लूक़
दबी हुई है दुखों के हज़ार ढेरों में
अहमद फ़राज़
नज़्म
हसन कूज़ा-गर (1)
वो कूज़े मेरे दस्त-ए-चाबुक के पुतले
गिल-ओ-रंग-ओ-रोग़न की मख़्लूक़-ए-बे-जाँ
नून मीम राशिद
नज़्म
मौज़ू-ए-सुख़न
इन दमकते हुए शहरों की फ़रावाँ मख़्लूक़
क्यूँ फ़क़त मरने की हसरत में जिया करती है
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
हसन कूज़ा-गर (4)
कभी जाम ओ मीना की लिम तक न पहुँचीं
यही आज इस रंग ओ रोग़न की मख़्लूक़-ए-बे-जाँ
नून मीम राशिद
ग़ज़ल
इक गर्दन-ए-मख़्लूक़ जो हर हाल में ख़म है
इक बाज़ू-ए-क़ातिल है कि ख़ूँ-रेज़ बहुत है