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ग़ज़ल
हो दर-ए-मय-ख़ाना पर बे-दुख़्त-ए-रज़ बैठे हुए
हज़रत-ए-'ममनूँ' यही क्या शेवा-ए-अशराफ़ था
ममनून निज़ामुद्दीन
ग़ज़ल
मानिंद-ए-हबाब आप किया इश्क़ ने 'ममनूँ'
पाया न निशाँ जामा में अपने कहीं तन का
ममनून निज़ामुद्दीन
ग़ज़ल
मुस्लिम अंसारी
ग़ज़ल
होती है नींद में कहीं तश्कील-ए-ख़द्द-ओ-ख़ाल
उठता हूँ अपने ख़्वाब का चेहरा उठा के मैं