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नज़्म
तारीख़ की अदालत
तमाम मफ़्लूज अद्ल-गाहों की मस्लहत-ए-केश-बे-ज़बानी
लहू-फ़रोशी के कुल दलाएल
हसन हमीदी
ग़ज़ल
मस्लहत-केश बने बैठे हैं सब अहल-ए-वफ़ा
इतना रुस्वा तो कभी इश्क़ का पिंदार न था
गुलाम जीलानी असग़र
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ग़ज़ल
मस्लहत-कोश रफ़ीक़ों से है दूरी लाज़िम
न हुए वक़्त पे वो सीना-सिपर देखा है