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नज़्म
लौह-ओ-क़लम
मंज़ूर ये तल्ख़ी ये सितम हम को गवारा
दम है तो मुदावा-ए-अलम करते रहेंगे
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
उर्दू
ये मुमकिन है कि क़ौमों को मिटा दे गर्दिश-ए-आलम
मगर कोई मिटा सकता नहीं उर्दू की अज़्मत को
अलम मुज़फ़्फ़र नगरी
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ग़ज़ल
'अलम’ रब्त-ए-दिल-ओ-पैकाँ अब इस आलम को पहुँचा है
कि हम पैकाँ को दिल दिल को कभी पैकाँ समझते हैं
अलम मुज़फ़्फ़र नगरी
ग़ज़ल
बदला न मेरा रंज-ओ-अलम हाए रे क़िस्मत
दिल और मचल जाता है दिल-गीर के आगे