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ग़ज़ल
जो मुनकिर-ए-वफ़ा हो फ़रेब उस पे क्या चले
क्यूँ बद-गुमाँ हूँ दोस्त से दुश्मन के बाब में
मिर्ज़ा ग़ालिब
नज़्म
फ़र्ज़ करो
फ़र्ज़ करो हम अहल-ए-वफ़ा हों, फ़र्ज़ करो दीवाने हों
फ़र्ज़ करो ये दोनों बातें झूटी हों अफ़्साने हों
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
दुश्मनों ने आज जो देखा मिरा हुस्न-ए-सुलूक
वो 'वफ़ा' अपना निशाना ख़ुद ख़ता करने लगे
मुहिबुर्रहमान वफ़ा
समस्त