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नज़्म
तुम तो बस लाशें उठाने के लिए ज़िंदा हो
तुम किसी और सताइश के भी हक़दार नहीं
लेकिन आती है कहीं से ये सदा-ए-बर-हक़
खालिद इरफ़ान
क़ितआ
आ कि सीने से लगाएँ ख़ालिक़-ए-बर-हक़ तुझे
जितने हम मजबूर हैं उतना ही तू मजबूर है
अख़्तर अंसारी अकबराबादी
ग़ज़ल
ख़ुदा माबूद है मुतलक़ बंदा मौजूद है मुतलक़
यू दोनों मुतलक़-ए-बर-हक़ समझ हर यक का मुश्किल है
क़ुर्बी वेलोरी
नज़्म
नमरूद की ख़ुदाई
और ऐसे पैवंद से उमीद-ए-वफ़ा किसे थी!
शिकस्त-ए-मीना ओ जाम-ए-बर-हक़,
नून मीम राशिद
ग़ज़ल
किसी का वादा-ए-दीदार तो ऐ 'दाग़' बर-हक़ है
मगर ये देखिए दिल-शाद उस दिन हम भी होते हैं