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नज़्म
इंसान की फ़रियाद
तस्कीं को ज़हर-ए-क़ातिल आब-ओ-हवा-ए-आलम
राहत का दुश्मन-ए-जाँ हर इंक़लाब-ए-हस्ती
ग़ुलाम भीक नैरंग
ग़ज़ल
याँ तो ऐ 'नैरंग' दोनों के लिए सामाँ नहीं
मौत भी मुझ पर गिराँ है गर है भारी ज़िंदगी
ग़ुलाम भीक नैरंग
ग़ज़ल
शिद्दत-ए-शौक़-ए-शहादत का कहूँ क्या आलम
तेग़-ए-क़ातिल पड़ी सर पे मिरे एहसाँ हो कर
ग़ुलाम भीक नैरंग
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नज़्म
उर्दू
ये मुमकिन है कि क़ौमों को मिटा दे गर्दिश-ए-आलम
मगर कोई मिटा सकता नहीं उर्दू की अज़्मत को
अलम मुज़फ़्फ़र नगरी
ग़ज़ल
'अलम’ रब्त-ए-दिल-ओ-पैकाँ अब इस आलम को पहुँचा है
कि हम पैकाँ को दिल दिल को कभी पैकाँ समझते हैं