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ग़ज़ल
है तंग-दस्तियों के सबब ज़ो'फ़ इस क़दर
सब की हैं आँखें नर्गिस-ए-बीमार आज-कल
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
नर्गिस ओ गुल की खिली जाती हैं कलियाँ देखो सब
फिर भी उन ख़्वाबीदा फ़ित्नों को जगाती है बहार
मज़हर मिर्ज़ा जान-ए-जानाँ
ग़ज़ल
बना है इक आलम-ए-तहय्युर नई फ़ज़ा है नया समाँ है
हयात के ये अजीब लम्हे न जाने क्या क्या पयाम लाए
रुख़्साना निकहत लारी उम्म-ए-हानी
ग़ज़ल
अर्श मलसियानी
नज़्म
शाम-ए-अयादत
वो नर्गिस-ए-सियाह-ए-नीम-बाज़, मय-कदा-ब-दोश
हज़ार मस्त रातों की जवानियाँ लिए हुए
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
पैसा
हैं खिले कियारियों में नर्गिस-ओ-नसरीन-ओ-समन
हौज़ फ़व्वारे हैं बंगलों में भी पर्दे चलवन