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ग़ज़ल
कुश्तनी पास तो आ जाए मगर तेरे पास
नेज़ा-ओ-तीर ही है दश्ना-ओ-शमशीर नहीं
सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम
ग़ज़ल
जाने क्यों तीर-ए-सितम चलते हैं हम पर 'बेबाक'
अपना मस्लक तो मोहब्बत के सिवा कुछ भी नहीं
शान-ए-हैदर बेबाक अमरोहवी
ग़ज़ल
वो तो कहिये कि है पर्वाज़-ए-तख़य्युल से परे
वर्ना यज़्दाँ भी किसी तीर की ज़द पर होता
बद्र-ए-आलम ख़ाँ आज़मी
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ग़ज़ल
दिल में तीर-ए-इश्क़ है और फ़र्क़ पर शमशीर-ए-इश्क़
क्या बताएँ पड़ गई है पाँव में ज़ंजीर-ए-इश्क़
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
नेज़ा-ओ-शमशीर-ओ-ख़ंजर की अगर इफ़रात है
ख़ून की भी मेरी रग रग में फ़रावानी रहे
ग़ुलाम मुर्तज़ा राही
ग़ज़ल
सुना था नेज़ा-ओ-तलवार-ओ-ख़ंजर बेच डाले हैं
मगर ज़िल्ल-ए-इलाही ने तो लश्कर बेच डाले हैं