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ग़ज़ल
कहा गोरी ने कुर्सी पर अदब से बैठना सीखो
निगोड़े तोड़ दीं दो दिन में सारी कुर्सियाँ मेरी
बुलबुल काश्मीरी
ग़ज़ल
कभी दिल-हा-ए-बुताँ तुझ से पसीजें ऐ अश्क
तो ये हम जानें कि बस तू ने निचोड़े पत्थर
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
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रेख़्ती
सख़ावत का पता कोसों तलक बाजी नहीं मिलता
हुआ हातिम भी क्या जा के निगोड़े सोम का छैला
मीर यार अली जान
रेख़्ती
क्या जाने आगे चल के वो भड़वा करेगा क्या
अच्छा नहीं निगोड़े का जब ऐ बुआ शुरू'
मोहसिन ख़ान मोहसिन
रेख़्ती
मुझे नफ़रत है सूरत से निगोड़े जान-साहब की
वो उस की शक्ल क्या है ऐ बुआ क़ुर्बान की सूरत
मीर यार अली जान
ग़ज़ल
हम हैं निगोड़े हम हैं भगोड़े हम हैं निकम्मे हम काहिल
जिस दम महफ़िल रंग पे होगी हम से रहा न जाएगा