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ग़ज़ल
अपने लहू से रक्खी है बुनियाद-ए-ज़िंदगी
हम से निज़ाम-ए-गुलशन-ए-हस्ती में जान है
सय्यद अख़्तर अली अख़्तर
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ग़ज़ल
क्या गुलशन-ए-हस्ती फूले फले इक फूल भी जब शादाब नहीं
मरने के हैं सामाँ बहुतेरे जीने के मगर अस्बाब नहीं
नवाब देहलवी
नज़्म
शाएर की तमन्ना
अगर इस गुलशन-ए-हस्ती में होना ही मुक़द्दर था
तो मैं ग़ुंचों की मुट्ठी में दिल-ए-बुलबुल हुआ होता
जमील मज़हरी
कुल्लियात
वो नौ-बावा-ए-गुलशन-ए-ख़ूबी सब से रखे है निराली तरह
शाख़-ए-गुल सा जाए है लहका उन ने नई ये डाली तरह
मीर तक़ी मीर
शेर
गरचे तुम ताज़ा गुल-ए-गुलशन-ए-रानाई हो
फिर भी ये ऐब है इक तुम में कि हरजाई हो
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
चले थे हम कि सैर-ए-गुलशन-ए-ईजाद करते हैं
कि इतने में अजल आ कर पुकारी याद करते हैं