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नज़्म
सैक्स वर्कर्स
तो क्यों भला ये ग़लीज़ जिस्मों को ओढ़ते हैं
ये गंदे मूँहों को सूँघते हैं
शोएब कियानी
ग़ज़ल
जिन के पास नहीं हैं कपड़े तन को ढाँपने ख़ातिर
रातें ओढ़ते हैं वो काली धूप-नगर के बासी
ताहिर हनफ़ी
ग़ज़ल
एक अर्सा यहाँ ज़िंदगी अपनी तौलीद करती रही
इन खंडर ओढ़ते सब्ज़ा ज़ारों के दुख तुम नहीं जानते