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ग़ज़ल
ग़रीब आँख के घर में पले-बढ़े हैं ख़्वाब
तभी तो नींद की क़ीमत समझ रहे हैं ख़्वाब
सुभाष पाठक ज़िया
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ग़ज़ल
ये जो आँसुओं का लिफ़ाफ़ा है कई दर्द इस में पले बढ़े
कभी झाँक ले मिरी आँख में तुझे ए'तिबार अगर न हो
अच्युतम यादव
नज़्म
ऐवान-ए-तसलीस में शम-ए-वहदत जले
और जब उन के अज्दाद की सरज़मीं
जिस की आग़ोश में वो पले