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ग़ज़ल
मकानों के नगर में हम अगर कुछ घर बना लेते
तो अपनी बस्तियों को स्वर्ग से बढ़ कर बना लेते
नवीन सी. चतुर्वेदी
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नज़्म
वतन की मिट्टी
मेरे वतन की मिट्टी सोना उगल रही है
सब्ज़े की ये हुकूमत ये खेत लहलहाते
अब्र अहसनी गनौरी
नज़्म
नक़्श-बर-आब
साल-हा-साल मोहब्बत जो बना करती है
रिश्ता-ए-क़ल्ब-ओ-नज़र पल्ला-ए-रेशम की तरह
अदा जाफ़री
नज़्म
मुंतज़र साया-ए-मुंतज़िर आँखें
ग़ैरत है कि हया
नाम उस का न लिया जिस को पुकारा उस ने
ज़हीर सिद्दीक़ी
नज़्म
मकाशफ़ा
सुनो अगर तुम ख़त्म करना ही चाहते हो
तो आदमी को आदमी से करने वाले आदमी को ख़त्म कर दो