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ग़ज़ल
दिलों के क़ैद-ख़ानों में उमंगें फड़फड़ाती हैं
बहुत मुश्किल मिलन है फिर तो हम महसूर ही अच्छे
जिया शाह
ग़ज़ल
वो जिन के नाम पे निकलेंगी कल की ता'बीरें
किए हैं ख़्वाब मुक़फ़्फ़ल वो क़ैद ख़ानों में
आयाज़ रसूल नाज़की
ग़ज़ल
शराबें तो कलीदें हैं लहू के क़ैद-ख़ानों की
सो ताले तोड़ते हैं और दरिया जारी करते हैं
फ़रहत एहसास
नज़्म
क़ौमी तराना
क़ैद-ख़ानों में हज़ारों बंद हैं फ़ख़्र-ए-वतन
मुल्क की ख़ातिर तुम्हें भी जाँ खपानी चाहिए
बाबू मुर्ली धर
ग़ज़ल
ये सफ़र मालूम का मालूम तक है ऐ 'मुनीर'
मैं कहाँ तक इन हदों के क़ैद-ख़ानों में रहूँ
मुनीर नियाज़ी
शेर
ये सफ़र मा'लूम का मालूम तक है ऐ 'मुनीर'
मैं कहाँ तक इन हदों के क़ैद-ख़ानों में रहूँ
मुनीर नियाज़ी
नज़्म
एक सवाल
कलमा-ए-हक़ कहा
मक़्तलों क़ैद-ख़ानों सलीबों में बहता लहू उन के होने का ऐलान करता रहा