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शेर
नहीं तेरा नशेमन क़स्र-ए-सुल्तानी के गुम्बद पर
तू शाहीं है बसेरा कर पहाड़ों की चटानों में
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
ये किस ने कह दिया है क़स्र-ए-सुल्तानी में रहता हूँ
मैं अपनी ज़ात में फैली बयाबानी में रहता हूँ
अज़हर कमाल ख़ान
नज़्म
एक नौ-जवान के नाम
नहीं तेरा नशेमन क़स्र-ए-सुल्तानी के गुम्बद पर
तू शाहीं है बसेरा कर पहाड़ों की चटानों में
अल्लामा इक़बाल
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ग़ज़ल
क़स्र-ए-सुल्तानी मुबारक हो ये ऐ ज़ाग़ तुझे
मैं तो शाहीं हूँ पहाड़ों में भी पल जाऊँगा
मंज़ूर अली आक़िब
ग़ज़ल
ख़ुलूस अख़्लाक़ है कच्चे मकानों के मकीनों में
हसद बुग़्ज़-ओ-अदावत क़स्र-ए-सुल्तानी में रक्खा है
इमरान साग़र
ग़ज़ल
यही दरवेश की कुटिया है क़स्र-ए-क़ैसर-ओ-किसरा
वो अपने झोंपड़े को क़स्र-ए-सुल्तानी समझता है
मसऊद अहमद
ग़ज़ल
ग़रीबों के घरों में एक भी रौनक़ नहीं बाक़ी
बहार-ए-क़स्र-ए-सुल्तानी जो पहले थी वो अब भी है
रूमाना रूमी
ग़ज़ल
नींद रोती रही सुनसान खंडर में छुप कर
क़स्र-ए-शाही का हसीं मख़मलीं बिस्तर ख़ामोश