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ग़ज़ल
जानता हूँ कि सुकूँ क़िस्मत-ए-इंसाँ में नहीं
मैं तुम्हें अपना बना लूँ मिरे इम्काँ में नहीं
बिसमिल देहलवी
ग़ज़ल
दिल की तस्कीन नहीं क़िस्मत-ए-इंसाँ में नहीं
मैं उन्हें अपना बना लूँ मिरे इम्काँ में नहीं
बिसमिल देहलवी
नज़्म
शाम-ए-ग़ुर्बत
ये भी कोई ज़िंदगी है जब नहीं
ख़ुश्क टुकड़ा क़िस्मत-ए-इंसान में
सय्यद अली हुसैन शाह अली
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नज़्म
कातिक का चाँद
इन की क़िस्मत में शब-ए-माह को रोना कैसा
इन के सीने में न हसरत न तमन्ना कोई
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
बे-अमल लोगों से जब पूछो तो कहते हैं की 'शान'
हम अज़ल से क़िस्मत-ए-नाकाम ले कर आए हैं
सय्यदा शान-ए-मेराज
ग़ज़ल
कोई भी क़ैद-ए-मुसलसल मिरी क़िस्मत में न थी
मेरे सय्याद का दिल टूट गया है मुझ से