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नज़्म
शायद मिट्टी मुझे फिर पुकारे
कंचे इस चादर को छेद छेद कर देंगे
चादर में पहले ही सी कर लाई थी
सारा शगुफ़्ता
ग़ज़ल
अपने गिर्द लकीरें खींचें और फिर उन में क़ैद हुए
इस दुनिया में खेल थे जितने सारे ही तबक़ाती थे
फ़रहत ज़ाहिद
नज़्म
ये बस्ती मेरी बस्ती है
मगर गोली के पीछे अख़्तर-ओ-अनवर भी लड़ते थे
मुझे भी अच्छे लगते थे बहुत ये ख़ुशनुमा कंचे
