aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "rahan-e-gam"
चराग़-ए-हस्ती-ए-ग़म जल रहा हैअभी तक रौशनी मद्धम नहीं है
किसी के भूल जाने से मोहब्बत कम नहीं होतीमोहब्बत ग़म तो देती है शरीक-ए-ग़म नहीं होती
क़ाएम रहें ख़ुदा-रा मिरी सब ये हसरतेंदूँगा जगह इन्हें भी दिल-ए-दाग़-दार में
अरे 'ग़म' लग़्ज़िश-ए-सोज़-ए-जिगर का कैफ़ क्या कहिएज़बाँ मजबूर हो जाती है जब दिल में उतरती है
शाम-ए-ग़म की सहर नहीं होतीया हमीं को ख़बर नहीं होती
फैलता फैलता शाम-ए-ग़म का धुआँइक उदासी का तनता हुआ साएबाँ
जब दहर के ग़म से अमाँ न मिली हम लोगों ने इश्क़ ईजाद कियाकभी शहर-ए-बुताँ में ख़राब फिरे कभी दश्त-ए-जुनूँ आबाद किया
दिल चल के लबों तक आ न सका लब खुल न सके ग़म जा न सकाअपना तो बस इतना क़िस्सा था तुम अपनी सुनाओ अपनी कहो
रूह को आलाइश-ए-ग़म से कभी ख़ाली न रखयानी बे-ज़ंगार किस का आइना रौशन हुआ
किन राहों से हो कर आई हो किस गुल का संदेसा लाई होहम बाग़ में ख़ुश ख़ुश बैठे थे क्या कर दिया आ के सबा तुम ने
अभी कल ही की बात है जान-ए-जहाँ यहाँ फ़ील के फ़ील थे शोर-कुनाँअब नारा-ए-इश्क़ न ज़र्ब-ए-फ़ुग़ाँ गए कौन नगर वो वफ़ा के धनी
मैं ख़ुद हूँ नक़्द मगर सौ उधार सर पर हैअजब वबाल-ए-ग़म-ए-रोज़गार सर पर है
था इक तलातुम मय-ए-तख़य्युल के जाम-ओ-ख़ुम में तो जल-तरंगों पे छिड़ गई धुनजो पर्दा-दार-ए-नशात-ए-ग़म है जो ज़ख़्मा-कार-ए-नवा-गरी है वो शाइ'री है
तलातुम-ए-ग़म-ए-दौराँ में बह गए पतवारहवा के हाथ में हम बादबान छोड़ आए
कहाँ हम और कहाँ ये लज़्ज़त-ए-ग़मये सब तेरी करम-फ़रमाइयाँ हैं
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