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ग़ज़ल
मैं जिस 'आलम में हूँ अपनी जगह ऐ 'शोर' तन्हा हूँ
जुदा हो जिस की मंज़िल वो रहीन-ए-कारवाँ क्यूँ हो
मंज़ूर हुसैन शोर
ग़ज़ल
मैं जिस आलम में हूँ अपनी जगह ऐ 'शोर' तन्हा हूँ
जुदा हो जिस की मंज़िल वो रहीन-ए-कारवाँ क्यूँ हो
मंज़ूर हुसैन शोर
ग़ज़ल
कोई 'शोर' ये तो पूछे दर-ओ-बाम-ए-ख़ुसरवी से
ये लहू से किस के रौशन है चराग़-कज-कुलाही
मंज़ूर हुसैन शोर
ग़ज़ल
मुझे 'शोर' दे रहे हैं वो फ़रेब-ए-तेज़-गामी
कि जो दो क़दम भी चलते तो न ए'तिबार होता
मंज़ूर हुसैन शोर
ग़ज़ल
शरीक-ए-रहगुज़र कोई नहीं होता मगर फिर भी
यहाँ हर राह-रौ को हम-सफ़र कहना ही पड़ता है