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ग़ज़ल
आश्नाई सेती मर्दुम के हूँ अज़ बस बेज़ार
रुख़-ए-दर्पन की तरफ़ चश्म कूँ रग़बत नीं है
मिर्ज़ा दाऊद बेग
नज़्म
मैं
मोहब्बत का घरौंदा नार-ए-दुनिया ने जला डाला
जो दर्पन था सुनहरी ख़्वाहिशों का
माहरुख़ अली माही
ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
होशियारी से हो 'परवीं' चमन-ए-हुस्न की सैर
दाम और दाना हैं दोनों रुख़-ए-दिलदार के पास
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
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ग़ज़ल
मिरे लहू में अब इतना भी रंग क्या होता
तराज़-ए-शौक़ में अक्स-ए-रुख़-ए-निगार भी है
आल-ए-अहमद सुरूर
नज़्म
अजब है खेल कैरम का
करेगी कमरे का रुख़ जब कनीज़-ए-ख़ास हमराह हो
सियाह हो चाहे गोरी हो मगर वो साथ में जाए
इब्न-ए-मुफ़्ती
ग़ज़ल
आले रज़ा रज़ा
ग़ज़ल
चली जाएगी इक ही रुख़ हवा ताकि ज़माने की
न पूरा होगा तेरा दौर ये ऐ आसमाँ कब तक
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
करता हूँ जो बार बार बोसा-ए-रुख़ का सवाल
हुस्न के सदक़े से है मुझ को गदाई का इश्क़
परवीन उम्म-ए-मुश्ताक़
ग़ज़ल
मैं ने हर मौज को मौज-ए-गुज़राँ समझा है
वर्ना तूफ़ानों का रुख़ मेरी तरफ़ क्या कम है
आल-ए-अहमद सुरूर
ग़ज़ल
ज़ख़्म-ए-फ़ुर्क़त को तिरी याद ने भरने न दिया
ग़म-ए-तंहाई मगर रुख़ पे उभरने न दिया
अशहद बिलाल इब्न-ए-चमन
नज़्म
शिकवा
आए उश्शाक़ गए वादा-ए-फ़र्दा ले कर
अब उन्हें ढूँड चराग़-ए-रुख़-ए-ज़ेबा ले कर