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ग़ज़ल
मैं ये जानता था मिरा हुनर है शिकस्त-ओ-रेख़्त से मो'तबर
जहाँ लोग संग-ब-दस्त थे वहीं मेरी शीशागरी रही
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
वो मिरा दुश्मन-ए-जाँ है कि नहीं संग-ब-दस्त
राएगाँ कोशिश-ए-सद-शीशा-गराँ है कि नहीं
आलमताब तिश्ना
शेर
उस के मक़्तल में मिरा ख़ून बटा दस्त-ब-दस्त
ख़ूब-रू जैसे लगाते हैं हिना दस्त-ब-दस्त