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ग़ज़ल
मय-ओ-माशूक़ से क्या बात कुछ मतलब नहीं रखते
बताओ तो कहाँ के 'सब्र' ऐसे पारसा तुम हो
अबुल बक़ा सब्र सहारनपुरी
ग़ज़ल
आराइश-ए-जमाल की कमसिन को क्या तमीज़
उलझी है उस की ज़ुल्फ़-ए-शिकन-दर-शिकन तमाम
अबुल बक़ा सब्र सहारनपुरी
ग़ज़ल
उतर जाता है रफ़्ता रफ़्ता सब नश्शा जवानी का
चला जाता है ख़ुद रंज-ए-ख़ुमार आहिस्ता आहिस्ता
अबुल बक़ा सब्र सहारनपुरी
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ग़ज़ल
'सब्र' हंगाम-ए-तलब शर्त है निय्यत में ख़ुलूस
जाएगी बाब-ए-इजाबत पे दुआ तीसरे दिन
अबुल बक़ा सब्र सहारनपुरी
ग़ज़ल
अह्द-ए-पीरी में हुए अपने जो सब बाल सफ़ेद
हम ये समझे कि हुआ नामा-ए-आमाल सफ़ेद
अबुल बक़ा सब्र सहारनपुरी
ग़ज़ल
'सब्र' मैं बार-ए-जसद छोड़ के क्यूँकर भागूँ
ज़िंदगानी मिरे सर पर है अज़ाब आख़िर-कार