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क़ितआ
आ कि सीने से लगाएँ ख़ालिक़-ए-बर-हक़ तुझे
जितने हम मजबूर हैं उतना ही तू मजबूर है
अख़्तर अंसारी अकबराबादी
नज़्म
दु'आ
इस बार बख़्श दे मिरे मौला 'सदा' को तू
क़ैद-ए-हिसार-ए-ज़ात की फिर से सज़ा न दे
सदा अम्बालवी
ग़ज़ल
ख़ुदा माबूद है मुतलक़ बंदा मौजूद है मुतलक़
यू दोनों मुतलक़-ए-बर-हक़ समझ हर यक का मुश्किल है
क़ुर्बी वेलोरी
नज़्म
नमरूद की ख़ुदाई
और ऐसे पैवंद से उमीद-ए-वफ़ा किसे थी!
शिकस्त-ए-मीना ओ जाम-ए-बर-हक़,