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नज़्म
'इक़बाल' के मज़ार पर
लहद में सो रही है आज बे-शक मुश्त-ए-ख़ाक उस की
मगर गर्म-ए-अमल है जागती है जान-ए-पाक उस की
हफ़ीज़ जालंधरी
कुल्लियात
किस की मस्जिद कैसे मयख़ाने कहाँ के शैख़-ओ-शाब
एक गर्दिश में तिरी चश्म-ए-सियह की सब ख़राब
मीर तक़ी मीर
कुल्लियात
माह-ए-सियाम आया है क़स्द-ए-एतकाफ़ अब
जा बैठें मय-कदे में मस्जिद से उठ के साफ़ अब
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
ये है मय-ख़ाना अदब लाज़िम है ये मस्जिद नहीं
दैर से आए सफ़-ए-अव्वल में शामिल हो गए