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ग़ज़ल
नहीं है आज भी शाइस्ता-ए-आदाब-ए-मय-नोशी
वो इक रिंद-ए-बला-कश जिस का 'ताबाँ' नाम है साक़ी
ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ
ग़ज़ल
हुस्न शाइस्ता-ए-तहज़ीब-ए-अलम है शायद
ग़म-ज़दा लगती हैं क्यूँ चाँदनी रातें अक्सर
जाँ निसार अख़्तर
ग़ज़ल
है दिल में हुज़ूरी की तमन्ना तो जबीं को
शाइस्ता-ए-आदाब-ए-हरम करते रहेंगे