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ग़ज़ल
जुनूँ-आवर शब-ए-महताब थी पी की तमन्ना में
कि बह कर रेल में अश्कों के हम थे सैर-ए-दरिया में
वली उज़लत
ग़ज़ल
शब-ए-माहताब ने शह-नशीं पे अजीब गुल सा खिला दिया
मुझे यूँ लगा किसी हाथ ने मिरे दिल पे तीर चला दिया
मुनीर नियाज़ी
ग़ज़ल
बिखरे हुए गेसू हैं चमकते हुए 'आरिज़
कुछ अब्र का है कुछ शब-ए-महताब का 'आलम
धर्मपान गुप्ता वफ़ा देहलवी
नज़्म
हिन्द की ये शब-ए-महताब
हिन्द की ये शब-ए-महताब बहुत ख़ूब सही
क़ल्ब-ए-अंजुम का मगर दर्द अभी कम तो नहीं