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ग़ज़ल
मैं अपने घर के अँधेरों में लौट आया 'शौक़'
पुकारता ही रहा मुझ को शहर-ए-ज़ात उस का
रज़ी अख़्तर शौक़
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ग़ज़ल
हम से जिस के तौर हों बाबा देखोगे दो एक ही और
कहने को तो शहर-ए-कराची बस्ती दिल-ज़दगाँ की है
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
दिल-आशोब
और शहर-ए-वफ़ा से दश्त-ए-जुनूँ कुछ दूर नहीं
हम ख़ुश न सही, पर तेरे सर का वबाल गया