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ग़ज़ल
क्यूँ ख़राबात में लाफ़-ए-हमा-दानी वा'इज़
कौन सुनता है तिरी हर्ज़ा-बयानी वा'इज़
मुंशी अमीरुल्लाह तस्लीम
नज़्म
ज़ोहद और रिंदी
लबरेज़ मय-ए-ज़ोहद से थी दिल की सुराही
थी तह में कहीं दुर्द-ए-ख़याल-ए-हमा-दानी
अल्लामा इक़बाल
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नज़्म
इशरत-ए-तन्हाई
मैं हमा-शौक़-ओ-मोहब्बत वो हमा-लुत्फ़-ओ-करम
मरकज़-ए-मर्हमत-ए-महफ़िल-ए-ख़ूबाँ हूँ मैं
असरार-उल-हक़ मजाज़
ग़ज़ल
मियाँ हम ख़ाकसारी में जवाब अपना नहीं रखते
ज़रूरत आ पड़े तो फिर हमा-दानी भी करते हैं
ख़ुर्शीद अलीग
ग़ज़ल
बहुत दुश्वार है फ़िक्र-ए-ग़ज़ल में ताक़ हो जाना
हुनर-मंदी ज़रूरी है हमा-दानी से क्या होगा
तारिक़ मतीन
ग़ज़ल
लफ़्ज़-ओ-मा'नी की ये सब झूटी नुमाइश छोड़ दे
यूँ हमा-दानी की नादाँ अपनी ख़्वाहिश छोड़ दे
हफीज़ बेताब
ग़ज़ल
ज़ेर-ए-लब इक लफ़्ज़ ने कैसा हमें चौंका दिया
पल ही पल में 'ख़ानक़ाही' सब हमा-दानी गई