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शेर
सुनते हैं इश्क़ नाम के गुज़रे हैं इक बुज़ुर्ग
हम लोग भी फ़क़ीर उसी सिलसिले के हैं
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
ये फ़ज़ा के रंग खुले खुले इसी पेश-ओ-पस के हैं सिलसिले
अभी ख़ुश-नवा कोई और था अभी पर-कुशा कोई और है
नसीर तुराबी
ग़ज़ल
ख़याल-ओ-ख़्वाब की सूरत बिखर गया माज़ी
न सिलसिले न वो क़िस्से न अब वो अफ़्साने