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ग़ज़ल
जब भी मंज़िल तिरे दामन में सिमट जाती है
ज़िंदगी ख़ुद को भी गुमनाम नज़र आती है
विनोद कुमार त्रिपाठी बशर
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ग़ज़ल
जाम था ख़ुम था सुबू था मजमा-ए-अहबाब था
शैख़ का इन सब में चेहरा किस क़दर शादाब था
हाशिम अज़ीमाबादी
नज़्म
ग़ुबार-ए-ख़ातिर-ए-महफ़िल ठहर जाए
कहीं तो कारवान-ए-दर्द की मंज़िल ठहर जाए
किनारे आ लगे उम्र-ए-रवाँ या दिल ठहर जाए
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
साक़ी-ए-मय-ख़ाना
ऐ दिलबर-ए-फ़रज़ाना ऐ साक़ी-ए-मय-ख़ाना
तेरी मय-ए-सहबा का मैं साइल-ए-तिश्ना था
अहमद फ़ाख़िर
ग़ज़ल
आँख के साहिल पर आते ही अश्क हमारे डूब गए
ग़म का सावन इतना बरसा सारे सहारे डूब गए