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ग़ज़ल
सिर्फ़ मिट्टी हो के रहने में तहफ़्फ़ुज़ है यहाँ
जिस ने कोशिश की मकाँ होने की बस ढह कर गया
फ़रहत एहसास
ग़ज़ल
खींच लाया तुझे एहसास-ए-तहफ़्फ़ुज़ मुझ तक
हम-सफ़र होने का तेरा भी इरादा कब था
अमीता परसुराम मीता
उद्धरण
जिस शख़्स का ख़ुदा ख़ुद निगेहबान हो उसका तहफ़्फ़ुज़ मुर्ग़-ओ-माही भी करते हैं।...
मौलाना जलालुद्दीन रूमी
नज़्म
गुफ़्तुगू जो होती है साल-ए-नौ से अम्बर की
अम्न और तहफ़्फ़ुज़ से शाद फिर रहें हम सब
नफ़रतें न बाँटें अब मुल्क क़ौम और मज़हब
अलीना इतरत
नज़्म
ऐसे नहीं होता
बस इक अपने तहफ़्फ़ुज़ के लिए
दुनिया को कितना बे-तहफ़्फ़ुज़ कर दिया तुम ने
अशफ़ाक़ हुसैन
नज़्म
आज और कल
अपनी सहमी हुई मंज़िल के तहफ़्फ़ुज़ के लिए
रहगुज़ारों में धुआँ छोड़ दिया जाता है
क़तील शिफ़ाई
ग़ज़ल
यक़ीं नहीं है तहफ़्फ़ुज़ का अब किसी को 'ख़ुमार'
हर एक ज़ेहन में हैं एहतिमाल जितने हैं