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ग़ज़ल
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
अहमद फ़राज़
शेर
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
अहमद फ़राज़
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ग़ज़ल
कोई गर सल्तनत भी दे तो वापस कर न ले ऐ दिल
सुबुक हर तर्फ़ तुझ को ग़ैर का एहसान कर देगा
शाद अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
चश्म-ए-तर है इस तरफ़ और उस तर्फ़ अब्र-ए-बहार
देखना है आज किस से कितना रोया जाए है