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ग़ज़ल
सलीब ओ दार के क़िस्से रक़म होते ही रहते हैं
क़लम की जुम्बिशों पर सर क़लम होते ही रहते हैं
अज़ीज़ हामिद मदनी
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ग़ज़ल
ऐसे शाइ'र ऐसे रहबर आज ज़ियादा हैं जिन में
अज़्म-ए-सलीब-ओ-दार नदारद ज़िक्र-ए-सलीब-ओ-दार बहुत
हैरत बिन वाहिद
ग़ज़ल
हमारे दम से है रौनक़ तुम्हारी महफ़िल की
हमीं न होंगे तो जश्न-ए-सलीब-ओ-दार कहाँ